किताब हूँ, सखा हूँ,
आज तुम्हारी बात कर रहा हूँ।
मैं कहीं तुमसे दूर नहीं,
पास की दराज़ में रखा हूँ।
मैं तो जीवन के फलसफे का
अग्रीम मार्गदर्शक सा हूँ।
तुम्हारी उड़ती हुई सोच की,
बस एक मज़बूत डोर सा हूँ।
जीवन के उतार-चढ़ाव का,
तुम्हारे दुख-सुख का गवाह हूँ।
देख रहा हूँ सब कुछ,
अपने पन्नों में लिख रहा हूँ।
कहूँगा कभी तुम्हारी कहानी,
पढ़ने वाला ढूँढ रहा हूँ।
अब रहते हो तुम कितने अलग,
आज याद मैं ही कर रहा हूँ।
आगे बढ़ गया समय फिर भी,
तुम्हारा स्पर्श महसूस कर रहा हूँ।
फिर आओगे मेरे पास कभी,
सखा हूँ, तुम्हारी राह देख रहा हूँ।
———-
this poem touched my heart. mam,..!
Great. Thank you for reading.
Wonderful poem
बहुत धन्यवाद।
Thank you Khushboo 😃
Best one!!